Sunday, October 10, 2010

लय और ताल

दोस्तो,
गति और ताल में लयबद्धता जीवन का एक आवश्यक अंग है। मस्तिष्क को अनेक उद्वेलनों और तनावों से बचाए रखने का यह अचूक, सकारात्मक और कलात्मक निदान है। इस बार गति और ताल में लयबद्धता का आनन्द लीजिए। इन्दौर से दिल्ली जाते हुए इन्दौर-एक्सप्रेस में भजन-कीर्तन करते जाते इंदौर आधारित एक भजन-मंडली के मुखिया ने मुझे बताया था कि उनकी मंडली की स्थापना उनके बुजुर्गों ने सन् 1896-97 में की थी। यह मंडली फिलहाल अपने पचास के करीब अनुयायी परिवारों के साथ श्रीराधा जी के दर्शनों हेतु मथुरा जा रही थी।

प्रस्तुत फुटेज़ द्वारका से बेट द्वारका(गुजराती-मराठी में 'बेट' से तात्पर्य 'टापू' होता है। हिन्दी पट्टी के लोग श्रीकृष्ण-सुदामा की भेंट से जोड़ते हुए इसे 'भेंट द्वारका' कहते हैं।) जाते हुए जेट्टी पर भिक्षा हेतु बैठे एक नेत्रहीन का है। गति और लय में तालबद्धता यहाँ भी है--हारे को हरिनाम की महत्ता यहाँ सिद्ध होती है।




गति और लय में तालबद्धता का एक नमूना यह भी है--एकजुट हो बैठना। सन्यासियों की यह मण्डली द्वारका स्थित रुक्मणी मन्दिर के बाहर लगभग 32 डिग्री सेल्सियस ताप बरसाते सूरज के नीचे हैं। इस आशा में कि श्रद्धालुओं से इन्हें कुछ दान-दक्षिणा प्राप्त हो जाएगी। ऊपर वाले फुटेज़ का नेत्रहीन भिक्षुक अपने चारों ओर की चिन्ताओं से मुक्त है। उसकी चप्पलें भी पीछे बिखरी पड़ी हैं। उसके पास खोने को जैसे कुछ है ही नहीं। इन साधुओं को भरण-पोषण की चिन्ता है, लेकिन एकजुट हो बैठना इनका प्रशंसनीय गुण है।




















धूप से बचने के लिए भिक्षुक बस्ते छोड़कर छाँह में बैठ जाते हैं



श्रद्धालुओं से भरी टूरिस्ट बस या अन्य वाहन के जाने पर वे अपने-अपने बस्ते पर बैठते हैं। किसी एक को देदीजिए, सब मिल-बाँटकर खाते हैं।